कभी NEET (National Eligibility cum Entrance Test) एक मेडिकल प्रवेश परीक्षा हुआ करती थी, लेकिन अब यह एक ऐसा जनून बन चुका है जिसमें हर साल लाखों छात्र और उनके परिवार अपनी पूरी ऊर्जा, समय और पैसा झोंक देते हैं। हाल ही में मेरी यात्रा राजस्थान के सीकर शहर तक हुई — एक ऐसा शहर जिसे अब ‘मिनी कोटा’ कहा जाने लगा है। यहां की सड़कों, गलियों और दीवारों पर आपको कोचिंग संस्थानों के बड़े-बड़े विज्ञापन और '100% Selection Guarantee' के पोस्टर मिलेंगे, जो बच्चों और माता-पिता के मन में एक सुनहरा सपना जगाते हैं — डॉक्टर बनने का सपना।
लेकिन क्या यह सपना सच में सबके लिए है? या फिर यह एक बहुत बड़े बाजार का हिस्सा बन गया है जहां भावनाओं की कीमत पर धंधा फल-फूल रहा है?
एक समय था जब NEET केवल परीक्षा हुआ करती थी। छात्र खुद से पढ़ते थे, गाइड किताबें खरीदते थे और माता-पिता केवल यह कहते थे, “इमानदारी से मेहनत करो, बाकी हम देख लेंगे।” लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। अब बच्चा अगर 9वीं-10वीं में है, तब ही से कोचिंग की तलाश शुरू हो जाती है। ‘फाउंडेशन कोर्स’, ‘क्रैश कोर्स’, ‘टेस्ट सीरीज’, ‘डाउट सॉल्विंग सेशन’ जैसे शब्द अब अभिभावकों की सामान्य भाषा में शामिल हो चुके हैं।
सीकर जैसे शहरों में आपको हर दो कदम पर एक कोचिंग संस्थान मिलेगा। हर कोचिंग दावा करती है कि वही सबसे बेहतर है। हर कोचिंग के बाहर सैकड़ों छात्र आपको बैग टांगे भागते-दौड़ते दिखेंगे। लेकिन अगर आप इन बच्चों की आंखों में झांकें, तो वहाँ थकान, डर और असमंजस साफ दिखता है। वे 12-14 घंटे की पढ़ाई करते हैं, सुबह 6 बजे क्लास से शुरू करके रात 10 बजे तक मॉक टेस्ट, असेसमेंट और होमवर्क में उलझे रहते हैं।
इस सब के पीछे एक ही सपना होता है — MBBS की सीट पाना।
लेकिन जब हम वास्तविकता पर नजर डालते हैं, तो यह चौंकाने वाला है। NEET के लिए हर साल लगभग 20 लाख छात्र रजिस्ट्रेशन कराते हैं, लेकिन MBBS की कुल सरकारी सीटें केवल 55,000 के आसपास होती हैं। यानी सफलता की संभावना 3% से भी कम। इसके बावजूद माता-पिता अपने बच्चे के साथ छोटे शहरों से दूर आकर किराए के मकान में रहते हैं, अपनी जमा पूंजी कोचिंग फीस, हॉस्टल और खानपान में खर्च करते हैं — बस इस उम्मीद में कि एक दिन उनका बच्चा डॉक्टर बनेगा।
समस्या सिर्फ परीक्षा की नहीं है, मानसिक दबाव की भी है।
हर साल NEET की तैयारी कर रहे छात्रों के बीच मानसिक अवसाद, तनाव, और आत्महत्या जैसे मामलों में वृद्धि देखी जाती है। वे बच्चे जो कभी परिवार की आंखों के तारे हुआ करते थे, वे आज खुद से सवाल करते हैं कि क्या मैं वाकई काबिल हूं? क्या मेरे नाकाम होने से मेरे माता-पिता की उम्मीदें टूट जाएंगी?
कोचिंग संस्थानों की ‘टॉपर वॉशिंग’ पॉलिसी भी इस सिस्टम की गहराई में छिपी समस्या है। जो बच्चे पहले से ही स्मार्ट हैं, उन्हें चुनकर उन्हें सुपर 30, सुपर स्टार, रैंकर्स जैसे विशेष बैच में डाल दिया जाता है और फिर उन्हीं की सफलता को अगले साल के विज्ञापन में भुनाया जाता है। बाकी के 95% छात्रों का कोई नामोनिशान नहीं मिलता।
सवाल यह है — क्या एक परीक्षा ही तय कर सकती है कि कोई बच्चा सफल है या असफल?
क्या देश की शिक्षा प्रणाली इतनी संकीर्ण हो गई है कि वह केवल एक एंट्रेंस एग्जाम को ही करियर का अंतिम निर्णय मानती है? क्या डॉक्टर बनने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है जिससे समाज की सेवा की जा सके?
हर बच्चा डॉक्टर नहीं बन सकता, और हर डॉक्टर ही सफल नहीं होता। सफलता केवल एक प्रोफेशन से नहीं आती, बल्कि उस प्रोफेशन में जुनून, सेवा भावना और निरंतर सीखते रहने की ललक से आती है। देश को सिर्फ डॉक्टर नहीं, अच्छे टीचर, साइंटिस्ट, रिसर्चर, फार्मासिस्ट, और नर्स भी चाहिए।
आज ज़रूरत है कि हम बच्चों को एक परीक्षा के जाल से बाहर निकालें। उन्हें यह भरोसा दिलाएं कि उनका मूल्य केवल एक रैंक से तय नहीं होता। उन्हें उनके जुनून, मेहनत और सोच से आंका जाना चाहिए।
माता-पिता को भी चाहिए कि वे कोचिंग की होड़ में पड़ने से पहले सोचें कि क्या वे अपने बच्चे पर वह दबाव डाल रहे हैं जो उसकी उम्र से बड़ा है। शिक्षा को एक व्यापार नहीं, सेवा का माध्यम समझना होगा।
NEET केवल एक रास्ता है, मंज़िल नहीं। और मंज़िलें कई होती हैं — हर किसी के लिए एक अलग रास्ता तय होता है।